वेद वाणी
वेद वाणी
हमारा जीवन यज्ञमय हो हम उस महान स्तोता के उपासक बनकर एक छोटे होता ही बनें, हमें उस होतृत्व का मद- गर्व न हो! उस यज्ञ को प्रभु चरणों में अर्पित कर हम मदशून्य( वि- मद्) ही बने रहें!
(*अग्निं न स्ववृक्तिभिर्होतारं त्वा वृणीमहे*! शीलं पावकशोचिषं वि वो मदे यज्ञेषु स्तीर्णबर्हिषं विवक्षसे!) ४२०-१
व्याख्या न स्ववृक्तिभिर्होतारं त्वा स्ववृक्तिभि:आ वृणीमहे
जैसे अपने कुछ त्याग से अग्नि को वरतें है, अर्थात घृत सामग्री आदि में कुछ व्यय करके जैसे हम अग्निहोत्रादि उत्तम कर्मों को करते हैं, उसी प्रकार हम सर्वस्व दान देने वाले आपको अपने कामादि दोषों के वर्जन से तथा यज्ञादि उत्तम कर्मों के आपके समर्पण से आपका वरण करतें हैं! प्रभु होता है अपने को ही जीवहित के लिए दे डालने वाले है! हम प्रभु का वरण दानादि द्वारा ही कर सकते हैं, अपने सब कर्मों का समर्पण ही वह महान त्याग है, जिससे हम प्रभु का वरण करते हैं! तदिदं वेद वचनं कुरु कर्म त्यजेति च यही वेद का उपदेश है कि कर्म करो और प्रभु चरणों में उसका त्याग कर दो! अपना अहं भाव न करो यही स्ववृक्ति अपने को छोडना है! वे प्रभु शीरम् सबमें निवास करने वाले व सबमें व्याप्त है! मैं भी उस हृदयस्थ प्रभु को अनुभव करने का प्रयत्न करूँ! वे प्रभु तो पावकशोचिषं पवित्र करने वाली ज्ञान दीप्ति वाले है! उस ज्ञानाग्नि में मेरा जीवन और पवित्र हो उठेगा! वे प्रभु यज्ञेषु स्तीर्णबर्हिषम् यज्ञों में बिखेर दी है! व्याप्त कर दी है हमारी वृद्धि जिन्होंने ऐसे है! सृष्टि के प्रारम्भ में यज्ञों को उत्पन्न करके प्रभु ने यही तो कहा कि इससे फूलों फलों यह तुम्हारी सब इष्ट कामनाओं को पूरा करे!
ये यज्ञ व: विमदे विवक्षसे तुम्हारे विशेष उन्नति के साधन है! यहाँ
विमदे व विवक्षसे इन दोनों शब्दों में निमित्त सप्तमी है! यज्ञों के द्वारा हमारा जीवन उल्लासमय, व विकासमय बनता है!
प्रातः का अग्निहोत्र सायं तक, और सायं का प्रातः तक चित्त को प्रसन्न रखता है! यज्ञों के बिना कोई भी विकास सम्भव ही नहीं!
मन्त्र का भाव है कि- हमारा जीवन यज्ञमय हो हम महान होता के उपासक बनकर एक छोटे होता ही बनें! हमें इस होतृत्व का गर्व न हो हम उस यज्ञ को भी प्रभु चरणों में अर्पित करके मदशून्य ही बनें रहे
सुमन भल्ला
(वेद प्रचारित महर्षि दयानंद सेवा समिति)
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