बुंदेलखंड की लोकगाथा ‘आल्हा’ विलुप्ति की कगार पर

जालौन 29 जुलाई (वार्ता) उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड की मिट्टी में रचे-बसे वीर रस से ओतप्रोत आल्हा गायन विलुप्ति की कगार पर है।

आल्हा कभी एक चौपाल में बैठकर समूह में सुना गाया जाता रहा है, उसके प्रभाव और आत्मिक अनुभूति को शब्दों में नहीं बांध सकता। यह न केवल एक लोकगीत शैली है, बल्कि संघर्ष, बलिदान और शौर्य की जीती-जागती परंपरा भी है। अब यही विधा आधुनिकता, उदासीनता और सामाजिक विमुखता के कारण धीरे-धीरे विलुप्ति की ओर बढ़ती नजर आ रही है।
बुंदेलखंड की पहचान बन चुके आल्हा गायन और कजरी जैसी लोकगीत विधाएं आज केवल सांस्कृतिक समारोहों और औपचारिक आयोजनों तक सिमट कर रह गई हैं। जिन गीतों ने कभी बुंदेलखंड के गांवों में रात-भर जागरण का माहौल बना दिया था, वे आज के युवाओं के लिए अनजाने बनते जा रहे हैं।
वरिष्ठ साहित्यकार डा. हरी मोहन पुरवार कहते हैं कि भारतीय परंपरा का आधा भाग उसकी लोकसंस्कृति है। वे बताते हैं, “भारत में ग्रामगीतों की पुरानी परंपरा रही है। ये गीत कभी श्रुति परंपरा से, तो कभी लिपिबद्ध होकर पीढ़ी दर पीढ़ी आगे बढ़ते रहे। आल्हा गायन बुंदेलखंड की आत्मा है, इसका रस और आत्मबल कुछ अलग ही है।”
लोकगायन को पसंद करने वाले और पेशे से लोहार गांव निवासी संतराम बताते हैं, “जब कोई आल्हा गायक तेज रौबीली भाव-भंगिमा के साथ मंच पर आता है, तो उसकी वीर रस से भरी प्रस्तुति पूरे श्रोता वर्ग को भीतर तक झकझोर देती है मगर अब समूह में आल्हा गायन सुनने वालों की संख्या घटती जा रही है, जो हमारी लोकसंस्कृति के क्षरण का संकेत है।”
कासीखेड़ा गांव के निवासी कल्लू यादव बीते दिनों को याद करते हुए कहते हैं, “पहले हम लोग खाना-पीना छोड़कर भी आल्हा सुनते थे। जब रेडियो पर आल्हा आता था तो सभी काम छोड़कर सुनते थे। अब आल्हा केवल रस्म अदायगी बनकर रह गया है, व्यस्त जीवनशैली ने हमारे सांस्कृतिक रस को ही सूखा दिया है।”

समाजसेवी संजय, श्रीवास्तव जो स्वयं आल्हा गायन के श्रोता रहे हैं, मानते हैं कि टेप रिकॉर्डर, सीडी और बाद में डिजिटल माध्यमों ने लोकगायन की लोकप्रियता को सीमित कर दिया है। “पहले हर घर में आल्हा की किताब मिलती थी, बच्चे-बूढ़े सब पढ़ते-सुनते थे, अब न तो घरों में किताबें हैं, न माहौल है। आज की पीढ़ी न तो इसे जानना चाहती है, और न ही इसे आत्मसात करने को तैयार है,” उन्होंने खेद व्यक्त करते हुए कहा।

भुजरियों की लड़ाई, बेतवा की लड़ाई, लाखन का गौना या बाप का बदला जैसी वीरगाथाएं अब केवल पुराने गायकों या श्रोताओं की स्मृति में कैद होकर रह गई हैं। चंदन यादव (बोदहपुरा) कहते हैं, “अब तो आल्हा की किताबें भी शहर के चुनिंदा बुक स्टॉलों पर ही मिलती हैं, जबकि पहले हर गांव, हर चौपाल पर इनकी चर्चा होती थी।”
चंदन इस स्थिति से उबरने के लिए ठोस पहल की मांग करते हैं। “अब समय आ गया है कि जिले की सामाजिक-सांस्कृतिक संस्थाएं सामने आकर आल्हा गायन के संरक्षण में भूमिका निभाएं। ज़िला प्रशासन को भी लोकगायन को बढ़ावा देने के लिए ठोस नीति बनानी चाहिए। स्कूलों, महाविद्यालयों और ग्राम सभाओं में आल्हा प्रतियोगिताएं कराई जानी चाहिए।”
उन्होंने बताया कि एक समय था जब लोग रात-रात भर जागकर, दूसरे गांवों तक जाकर आल्हा गायन सुनते थे। लेकिन अब यह माहौल खो गया है। यदि स्थिति में सुधार नहीं हुआ तो आल्हा गायन भविष्य में केवल अतीत की बात बनकर रह जाएगा।
वरिष्ठ श्रोता और लोकगायन प्रेमी यह भी सुझाव देते हैं कि सरकारी सांस्कृतिक आयोजनों में आल्हा गायन को विशेष रूप से शामिल किया जाना चाहिए। जिस तरह शास्त्रीय गायन, नृत्य और नाटकों के लिए प्रतियोगिताएं व कार्यशालाएं होती हैं, उसी तरह आल्हा गायन को भी मंच और मान्यता मिलनी चाहिए।
यह स्पष्ट है कि बुंदेलखंड की इस विशिष्ट विरासत को बचाने के लिए सामाजिक जागरूकता के साथ-साथ प्रशासनिक इच्छाशक्ति भी जरूरी है। अगर आल्हा को समय रहते संजीवनी न मिली, तो यह लोकगाथा सिर्फ इतिहास के पन्नों में सिमट जाएगी।

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