वेद वाणी
वेद वाणी
मै आदित्यों से क्रिया की प्रेरणा प्राप्त करके रोग, कुत्सा व दुर्गति से दूर हो जाऊँ!
(अपामीवामप स्त्रिधमप सेधत दुर्मति! आदित्यासो युयोतना नो अहंस:!) ३९७-७
व्याख्या हे आदित्यों! निरंतर क्रियाशीलता का उपदेश देने वाले सूर्यो! न: अहंस: युयोतन हमें अपनी प्रेरणा से क्रियाशील बनाकर कुटिलता से पृथक करो! तमोगुणी आलसी व्यक्ति अत्यधिक बदले की भावना से चलता है! वह कुटिलता की दिशा में ही सोचता है! हम आदित्यों की प्रेरणा से क्रियाशील बनकर कुटिलता से दूर हो! जिस तरह सूर्य सतत क्रियाशील है, उसी प्रकार हम भी क्रियाशील बनें! क्रियाशीलता ही हमें कुटिलता से बचा सकती है!
कुटिलता से बचने के साथ क्रियाशीलता के परिणामस्वरूप ये आदित्य अमीवाम् अपसेधत रोग कृमियों को हमसे दूर करते हैं! अकर्मण्य व आलसी शरीर में ही बीमारियां आती है! क्रियाशील व व्यायाम शील के पास बीमारियाँ उसी तरह नहीं आती है जैसे गरूड़ के समीप सर्प! हे आदित्यों! स्त्रिधम् दुर्मति कुत्सा को, हिंसा को, औरों के प्रति द्वेष की भावना को
हमसे दूर करो! स्तुति, निन्दा में वे ही व्यक्ति चलते हैं, जो अकर्मण्य होतें है! इसी प्रकार दुर्मतिम् अशुभ विचारों को हमसे दूर करो! क्रियाशील व्यक्ति का मस्तिष्क कभी भी दूषित विचारधाराओं को अपने मस्तिष्क में स्थान नहीं देता
इसलिए हमें इरिम्बिठि बनना ही चाहिए! हम थोड़ा थोड़ा करके इस बात का अभ्यास करें कि हमारे हृदय कर्म संकल्प वाले हों!
मन्त्र का भाव है कि- हम आदित्यों की प्रेरणा से रोग कुत्सा दुर्गति, से दूर हो जायें
सुमन भल्ला
(वेद प्रचारिका महर्षि दयानंद सेवा समिति)
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